25 जून 1975 की आधी रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देशभर में आपातकाल (Emergency) लागू कर दिया। यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला दिन माना जाता है। उस रात “भीतरी अस्थिरता” का हवाला देकर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से दस्तखत करवा लिए गए और देशभर में नागरिक अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और चुनावी प्रक्रिया सब कुछ ठप कर दिया गया।
🔒 मीडिया और विरोधियों पर लगा ताला
इमरजेंसी की शुरुआत के साथ ही प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी गई। अखबारों की बिजली काट दी गई, संपादकों को जेल में डाला गया और सरकार विरोधी किसी भी विचार को दबा दिया गया। ‘मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (MISA)’ के तहत लाखों लोगों को बिना मुकदमे के जेल में डाल दिया गया, जिनमें जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे बड़े नेता शामिल थे।
🛠️ इंदिरा और संजय गांधी का ‘नया भारत’
इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी का उदय हुआ, जिन्होंने ‘अनिवार्य नसबंदी अभियान’ और ‘स्लम क्लियरेंस ड्राइव’ जैसी योजनाएं चलाईं। गरीबों और मजदूरों पर जबरन कार्रवाई हुई, जिससे जनता में भारी असंतोष फैल गया। सरकारी कामकाज में ‘डिसिप्लिन’ के नाम पर डर और दमन हावी हो गया।
⚖️ न्यायपालिका की चुप्पी और आलोचना
इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने ‘ADM जबलपुर केस’ में यह फैसला सुनाया कि आपातकाल में नागरिकों के मौलिक अधिकार सस्पेंड किए जा सकते हैं। इस फैसले की तीखी आलोचना हुई और आज भी इसे भारतीय न्यायपालिका के इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय माना जाता है। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने खुद इसे पलटते हुए अपनी गलती मानी।
🗳️ जनता ने दी सबसे बड़ी सज़ा
21 महीनों बाद जब मार्च 1977 में आम चुनाव हुए, तो जनता ने कांग्रेस पार्टी को करारी शिकस्त दी। इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों अपनी सीटें हार गए। जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। यह लोकतंत्र की ताकत और जनता की आवाज़ की सबसे बड़ी जीत थी।
📌 आज की राजनीति में इमरजेंसी की गूंज
आज 50 साल बाद केंद्र सरकार ने 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने का ऐलान किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने इस दिन को लोकतंत्र की चेतावनी के तौर पर याद किया। वहीं, विपक्षी दलों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी और वर्तमान में भी लोकतंत्र पर खतरा बताया।
🧭 सीख जो आज भी जरूरी है
इमरजेंसी सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि लोकतंत्र की बुनियाद पर चोट थी। यह हमें सिखाती है कि जब संस्थाएं कमजोर हों, विपक्ष कुचला जाए और मीडिया चुप रहे — तो लोकतंत्र खतरे में होता है। आज भी इस घटना की याद लोकतंत्र के सजग प्रहरी बनने की प्रेरणा देती है।