बिहार विधानसभा चुनाव की टिक-टिक शुरू हो चुकी है। कयास लगाए जा रहे हैं कि चंद दिनों बाद ही चुनाव आयोग चुनाव की तारीखों का ऐलान कर देगा। चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ निकाली। 16 दिन, 23 जिले, 1300 किमी और 67 विधानसभा सीटों से गुजरी महागठबंधन की वोटर अधिकार यात्रा खत्म हो चुकी है। सासाराम से निकले और पटना तक चले इस यात्रा में वोट चोरी को मुद्दा बनाया गाया। कांग्रेस ने इस लड़ाई को जाति की राजनीति से अलग, अधिकारों और लोकतंत्र की लड़ाई के तौर पर पेश किया है। इन मुद्दों को लेकर पार्टी बिहार की राजनीति में फिर से अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है। अब यात्रा के खत्म होने के बाद एक बड़ा सवाल उठ रहा है कि क्या कांग्रेस बिहार में अपना खोया जनाधार वापस ला सकेगी?

आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस का बिहार में दशकों से लगातार पतन हुआ है। कांग्रेस कभी बिहार में एक बड़ी पार्टी थी। 1990 के दशक में पार्टी ने 71 विधानसभा सीटें जीती थीं और साल 2020 आते-आते यह सीटें सिमटकर 19 पर आ गईं। 1991 से 2024 तक लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बमुश्किल 1 से 5 सीटों तक सीमित रहा। विधानससभा चुनावों में तो स्थिति और खराब रही। यह गिरावट बिहार की राजनीति में कांग्रेस के हाशिये पर चले जाने की गवाही देती है। कांग्रेस ने इस यात्रा का सहारा अपनी राजनीतिक जमीन वापस पाने के लिए किया।
विपक्षी एकता का प्रदर्शन हुआ
चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ को चुनावी गुणा-गणित के लिहाज से अहम कदम माना जा रहा है। 23 जिलों से होकर 1300 किलोमीटर का सफर तय करने वाली यह यात्रा सिर्फ ‘वोटर लिस्ट’ की खामियों के खिलाफ विरोध भर नहीं थी, बल्कि महागठबंधन के शक्ति प्रदर्शन का एक जरिया भी थी। विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन के कई नेता अलग-अलग समय पर वोटर अधिकार यात्रा में शामिल हुए। इससे विपक्षी एकता का प्रदर्शन हुआ। यात्रा में कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा, मल्लिकार्जुन खरगे, रेवंत रेड्डी, अशोक गहलोत, केसी वेणुगोपाल, सिद्धारमैया शामिल हुए। आरजेडी से तेजस्वी यादव पूरे समय यात्रा में रहे और लालू प्रसाद यादव भी इसमें बीच में शामिल हुए। समाजवादी पार्टी से अखिलेश यादव, डीएमके के एमके स्टालिन और कनिमोझी, झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) से हेमंत सोरेन, तृणमूल कांग्रेस से यूसुफ पठान और ललितेश त्रिपाठी, एनसीपी (शरद पवार) से सुप्रिया सुले और जितेंद्र आव्हाड, शिवसेना (यूबीटी) से संजय राउत, वामपंथी पार्टियों से दीपांकर भट्टाचार्य (सीपीआई-एमएल), डी राजा (सीपीआई), एमए बेबी (सीपीआई-एम) और वीआईपी से मुकेश सहनी भी यात्रा में शामिल हुए।
एनडीए के मजबूत गढ़ों में सेंध लगाने की कोशिश
कांग्रेस के रणनीतिकारों ने ‘वोटर अधिकार यात्रा’ का रूट मैप बहुत सोच-समझकर तैयार किया था। यात्रा ने सबसे ज्यादा ध्यान उत्तर बिहार और मिथिलांचल के लगभग आधा दर्जन जिलों पर दिया, जिन्हें एनडीए का मजबूत गढ़ माना जाता है। इन इलाकों में दलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा और मुस्लिम मतदाताओं की अच्छी खासी तादाद है, जिन पर कांग्रेस अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है।यात्रा के रूट में 23 जिले कवर किए गए। यात्रा 110 से अधिक विधानसभा सीटों से होकर गुजरी, जिनमें से करीब 80 सीटों पर एनडीए का कब्जा है। यानी यात्रा के जरिए राहुल और तेजस्वी ने एनडीए के मजबूत गढ़ों में सेंध लगाने की कोशिश की। यह यात्रा कांग्रेस के लिए अपनी जमीन मजबूत करने का एक अवसर भी थी।
राहुल की छवि एक गंभीर और मेहनती नेता के रूप में उभरी
यही नहीं, बिहार की राजनीतिक के जानकार वोटर अधिकार यात्रा से राहुल गांधी की सियासत को संजीवनी मिलने की बात कह रहे हैं। राहुल गांधी ने जिस तरह वोट चोरी का मुद्दा उठाया है, उससे बाकि राज्यों में भी राहुल के अभियान को बल मिलेगा। एक तरफ, उन्होंने जमीन पर उतरकर लोगों से सीधा संवाद स्थापित किया, जिससे उनकी छवि एक गंभीर और मेहनती नेता के रूप में उभरी। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद यह उनका दूसरा बड़ा अभियान था, जिसने यह साबित किया कि वे सिर्फ दिल्ली से राजनीति नहीं करते, बल्कि राज्यों में भी सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं।
सीट बंटवारे में कांग्रेस की मोलभाव करने की शक्ति बढ़ी
कुल मिलाकर, राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ ने बिहार में कांग्रेस और महागठबंधन को एक नई ऊर्जा दी है। यह यात्रा न केवल आगामी विधानसभा चुनाव के लिए चुनावी माहौल बनाने में सफल रही, बल्कि इसने सीट बंटवारे में कांग्रेस की मोलभाव करने की शक्ति को भी बढ़ाया है। हालांकि, यात्रा के दौरान हुई विवादास्पद घटनाओं ने इसके सकारात्मक प्रभाव को कम किया है। पीएम मोदी और उनकी माँ पर की गई टिप्पणी ने बीजेपी को राहुल और तेजस्वी पर हमला करने का मौका दिया है। इसके अलावा, सीएम चेहरे को लेकर कांग्रेस की चुप्पी भी महागठबंधन के भीतर असंतोष पैदा कर सकती है। यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस अपने दावे को कितनी मजबूती से रखती है और आरजेडी के साथ सीट बंटवारे को कैसे सुलझाती है।