सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में दोहराया कि आरोप पत्र दाखिल होने और मुकदमा शुरू होने के बाद भी आगे की जांच का आदेश दिया जा सकता है, लेकिन इसके लिए ठोस आधार होना आवश्यक है। हसनभाई वलीभाई कुरैशी बनाम गुजरात राज्य (2004) 5 एससीसी 347 मामले का हवाला देते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी भी जांच का मुख्य उद्देश्य सत्य तक पहुंचना और न्याय सुनिश्चित करना होना चाहिए।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने एक दहेज उत्पीड़न मामले में हाईकोर्ट द्वारा दिए गए आगे की जांच के आदेश को रद्द कर दिया। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, संजय करोल और संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट ने बिना पर्याप्त कारण के जांच का आदेश दिया, जो न्यायिक अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन है।
क्या था मामला?
शिकायतकर्ता महिला ने अपने पति संजय गौतम के खिलाफ IPC की धारा 498A (क्रूरता) के तहत मामला दर्ज कराया था। हालांकि, शुरुआती FIR और ट्रायल कोर्ट के समक्ष दिए गए बयान में पति के अलावा किसी अन्य ससुराली सदस्य पर कोई आरोप नहीं लगाया गया था।
लेकिन करीब दो साल बाद, शिकायतकर्ता ने अपनी सास और ननद के खिलाफ उत्पीड़न के आरोप लगाए और CrPC की धारा 173(8) के तहत नए सिरे से जांच की मांग की।
ट्रायल कोर्ट ने यह आवेदन खारिज कर दिया, लेकिन हाईकोर्ट ने इसे स्वीकार करते हुए आगे की जांच का आदेश दे दिया। इस फैसले से नाराज होकर अपीलकर्ताओं (सास और ननद) ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए कहा कि:
शिकायतकर्ता के प्रारंभिक बयान में सास और ननद के खिलाफ कोई आरोप नहीं था।
आरोपों में अस्पष्टता थी, और आगे की जांच की मांग बहुत देर से की गई थी।
शिकायतकर्ता के पास CrPC की धारा 319 के तहत ट्रायल कोर्ट में समन जारी कराने का विकल्प था।
अगर कोई तथ्य छूट गए थे, तो CrPC की धारा 311 के तहत गवाही फिर से दर्ज कराने का विकल्प था।
शिकायतकर्ता और उसका पति बेंगलुरु में साथ रहते थे, जबकि उसके ससुर, सास, ननद और देवर अलग रहते थे।
न्यायालय ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “हाईकोर्ट ने आगे की जांच का आदेश देकर न्यायिक क्षेत्र का उल्लंघन किया। यह ध्यान देने योग्य है कि शिकायतकर्ता ने अपने पति के खिलाफ पहले ही गवाही दे दी थी और दो साल बाद अचानक नए आरोप लगाना संदेहजनक है।”
कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि शिकायतकर्ता अन्य वैधानिक उपायों का उपयोग कर सकती है, लेकिन बिना ठोस आधार के आगे की जांच का आदेश देना गलत है।
न्यायिक प्रक्रिया में अहम मिसाल
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उन मामलों के लिए मिसाल बनेगा जहां देर से लगाए गए आरोपों के आधार पर आगे की जांच की मांग की जाती है। यह स्पष्ट करता है कि न्याय केवल आरोपों के आधार पर नहीं, बल्कि ठोस सबूतों के आधार पर होना चाहिए।