नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि किसी भी कर्मचारी को अपनी सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) की आयु निर्धारित करने का मौलिक या अंतर्निहित अधिकार नहीं है। यह अधिकार केवल राज्य के पास है, और उसे अनुच्छेद 14 के तहत समानता के सिद्धांत का पालन करते हुए विवेकपूर्ण तरीके से प्रयोग करना चाहिए।
जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने यह फैसला उस मामले में सुनाया, जिसमें एक लोकोमोटर-विकलांग इलेक्ट्रीशियन कर्मचारी ने 60 वर्ष की आयु तक सेवा का दावा किया था। उसे 58 वर्ष की आयु में रिटायर किया गया, जबकि दृष्टिबाधित कर्मचारियों को 60 वर्ष तक सेवा की अनुमति दी गई थी।
विवाद की पृष्ठभूमि:
29 मार्च 2013 को जारी एक कार्यालय ज्ञापन (OM) के तहत दृष्टिबाधित कर्मचारियों की रिटायरमेंट आयु 60 वर्ष की गई थी। हालांकि, राज्य सरकार ने 4 नवंबर 2019 को यह OM वापस ले लिया और पुनः रिटायरमेंट की आयु 58 वर्ष निर्धारित कर दी।
अपीलकर्ता 18 सितंबर 2018 को रिटायर हुआ, लेकिन उसे OM वापस लेने की तिथि (04.11.2019) तक सेवा विस्तार मिला। उसने आगे भी सेवा जारी रखने की मांग की, जिसे खारिज कर दिया गया।
कोर्ट का निर्णय:
न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि अपीलकर्ता को 4 नवंबर 2019 तक सेवा में बने रहने और सभी समान लाभों (जैसे पूर्ण वेतन और पेंशन से जुड़े लाभ) का हकदार माना जाएगा। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि 4 नवंबर 2019 के बाद सेवा विस्तार का कोई अधिकार अपीलकर्ता को नहीं है, क्योंकि यह कार्यपालिका का नीतिगत निर्णय होता है।
मुख्य बिंदु:
- कर्मचारी को रिटायरमेंट आयु निर्धारित करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं।
- राज्य सरकार नीति अनुसार रिटायरमेंट आयु तय कर सकती है।
- 4 नवंबर 2019 तक सेवा का लाभ अपीलकर्ता को मिलेगा।
- 1 अक्टूबर 2018 से 4 नवंबर 2019 तक पूर्ण वेतन और पेंशन लाभ भी मिलेगा।
यह फैसला स्पष्ट करता है कि रिटायरमेंट से जुड़ी नीतियां प्रशासनिक और नीतिगत निर्णयों के अंतर्गत आती हैं, जिनका निर्धारण राज्य के अधिकार क्षेत्र में है।