नई दिल्ली, 5 अप्रैल 2025: सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका (PIL) पर विचार करने से इनकार कर दिया है, जिसमें 13 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया के उपयोग पर वैधानिक प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि सोशल मीडिया का बच्चों के शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। हालांकि, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की खंडपीठ ने इस मुद्दे को नीतिगत क्षेत्र से संबंधित बताते हुए याचिका को खारिज कर दिया और याचिकाकर्ता को केंद्र सरकार से संपर्क करने की सलाह दी।
कोर्ट का फैसला
अदालत ने अपने आदेश में कहा, “चूंकि मांगी गई राहत नीतिगत क्षेत्र से संबंधित है, हम याचिकाकर्ता को प्रतिवादी-अधिकारियों के समक्ष अभ्यावेदन करने की स्वतंत्रता देते हैं। इस याचिका का निपटारा करते हुए हम निर्देश देते हैं कि संबंधित अधिकारी याचिकाकर्ता के अभ्यावेदन पर प्राप्ति की तारीख से 8 सप्ताह के भीतर कानून के अनुसार विचार करें।” याचिका का प्रतिनिधित्व एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड मोहिनी प्रिया ने किया था।
याचिका में क्या थी मांग?
याचिकाकर्ता ने न केवल 13 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग की थी, बल्कि 13 से 18 साल के बच्चों के लिए भी सख्त नियम लागू करने का अनुरोध किया था। इनमें शामिल थे:
- अभिभावकीय नियंत्रण: वास्तविक समय की निगरानी, सख्त आयु सत्यापन और सामग्री प्रतिबंध जैसे प्रावधान।
- बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बच्चों की पहुंच को विनियमित करने के लिए मजबूत आयु सत्यापन प्रणाली।
- सख्त दंड: बाल संरक्षण नियमों का पालन न करने वाले प्लेटफॉर्म पर कड़ी कार्रवाई।
- एल्गोरिदम सुरक्षा: नाबालिगों को व्यसनी सामग्री से बचाने के लिए एल्गोरिदम में बदलाव।
याचिकाकर्ता ने यह भी मांग की थी कि प्रस्तावित डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023 (DPDP Act) के तहत इन प्रावधानों को शामिल किया जाए। उल्लेखनीय है कि डिजिटल डेटा सुरक्षा नियमों के मसौदे में पहले से ही यह प्रस्ताव है कि सोशल मीडिया और गेमिंग प्लेटफॉर्म बच्चों को अकाउंट खोलने की अनुमति देने से पहले माता-पिता की सहमति लें।
याचिकाकर्ता का तर्क
याचिकाकर्ता ने दावा किया कि सोशल मीडिया की अप्रतिबंधित पहुंच के कारण भारत में बच्चों के बीच मानसिक स्वास्थ्य संकट बढ़ रहा है। उनके अनुसार, “13 साल से कम उम्र के बच्चों का सोशल मीडिया पर अनियमित उपयोग अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है, जिसमें मानसिक स्वास्थ्य भी शामिल है।” याचिका में कहा गया कि देश में बच्चों में अवसाद, चिंता, आत्म-क्षति और आत्महत्या की दर में खतरनाक वृद्धि हुई है, और इसके पीछे सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग एक बड़ा कारण है। याचिकाकर्ता ने अनुभवजन्य साक्ष्यों का हवाला देते हुए दावा किया कि सोशल मीडिया और मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट के बीच सीधा संबंध है।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की मौजूदा नीतियां
याचिका में फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे मेटा-संचालित प्लेटफॉर्म की मौजूदा नीतियों की आलोचना की गई। इन प्लेटफॉर्म पर न्यूनतम आयु सीमा 13 साल है, लेकिन यह नियम प्रभावी रूप से लागू नहीं होता। याचिकाकर्ता के अनुसार, “आयु प्रतिबंध केवल नाममात्र के हैं। कम उम्र के बच्चों द्वारा बनाए गए खातों की पहचान तभी होती है, जब कोई यूजर उन्हें रिपोर्ट करता है। यह प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण मूल समस्या को हल करने में विफल है, जिससे नाबालिग बिना किसी जांच के इन प्लेटफॉर्म का उपयोग करते रहते हैं।”
आगे की राह
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब यह मामला केंद्र सरकार के पाले में है। याचिकाकर्ता को उम्मीद है कि सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाएगी, खासकर तब जब डिजिटल डेटा सुरक्षा नियमों का मसौदा पहले से ही बच्चों के लिए कुछ सुरक्षा उपायों का प्रस्ताव करता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह मुद्दा न केवल तकनीकी, बल्कि सामाजिक और स्वास्थ्य नीतियों से भी जुड़ा है, और इसके समाधान के लिए बहु-आयामी दृष्टिकोण की जरूरत होगी।
इस बीच, सोशल मीडिया के बच्चों पर प्रभाव को लेकर बहस तेज हो गई है। जहां कुछ लोग सख्त नियमों की वकालत कर रहे हैं, वहीं अन्य का मानना है कि जागरूकता और अभिभावकीय मार्गदर्शन ही इस समस्या का बेहतर समाधान हो सकता है।