सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में जम्मू और कश्मीर पुनर्वास (या स्थायी वापसी) अधिनियम, 1982 को चुनौती देने वाली 1982 से लंबित याचिकाओं के एक बैच का निपटारा कर दिया। तीन जजों की खंडपीठ — न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति एनके सिंह — ने यह स्पष्ट किया कि यह अधिनियम कभी प्रभाव में नहीं आया और 2002 में इस पर अदालत द्वारा रोक भी लगा दी गई थी।
कोर्ट ने कहा कि 2019 में जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम लागू होने के बाद यह अधिनियम निरस्त हो चुका है। विशेष रूप से, 2019 अधिनियम की पांचवीं अनुसूची की तालिका-3 में इसे क्रम संख्या 56 पर सूचीबद्ध किया गया है, जिससे स्पष्ट है कि यह कानून अब अस्तित्व में नहीं है।
1982 में पारित यह अधिनियम उन व्यक्तियों को जम्मू-कश्मीर लौटने की अनुमति देने के लिए बनाया गया था, जो 1 मार्च, 1947 के बाद पाकिस्तान चले गए थे, बशर्ते वे 14 मई, 1954 से पहले राज्य के निवासी रहे हों। इसका उद्देश्य उनके परिजनों और वंशजों को भी यह अधिकार देना था, भले ही वे भारतीय नागरिक न रहे हों।
हालाँकि, अधिनियम के तहत कभी कोई सक्षम प्राधिकारी अधिसूचित नहीं किया गया और न ही किसी व्यक्ति को इसका लाभ मिला। 2019 में दायर एक शपथपत्र में तत्कालीन राज्य सरकार ने यह जानकारी सुप्रीम कोर्ट को दी थी।
गौरतलब है कि अधिनियम बनने से पहले ही इसकी संवैधानिक वैधता को लेकर राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी, परंतु कोर्ट ने यह कहते हुए मामला लौटा दिया था कि अब यह एक अधिनियम बन चुका है।
अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चूंकि यह अधिनियम पहले कभी प्रभाव में नहीं आया और अब विधिवत रूप से निरस्त भी हो चुका है, इसलिए इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाएं अब प्रासंगिक नहीं रह गई हैं। अदालत ने इन याचिकाओं को निरर्थक मानते हुए खारिज कर दिया।