नई दिल्ली, 22 मई – सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक विशेष अनुमति याचिका की सुनवाई के दौरान 4 साल से अधिक समय से हिरासत में रहे एक आरोपी को जमानत देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीखी आलोचना की। शीर्ष अदालत ने कहा कि हाईकोर्ट ने जमानत याचिका पर 27 बार सुनवाई टालकर “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” के अधिकार की अनदेखी की है।
न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति संजय करोल की खंडपीठ ने कहा, “व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित मामलों में, उच्च न्यायालयों से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वे केवल स्थगन करें और कोई निर्णय न लें। याचिकाकर्ता चार साल से अधिक समय से जेल में है। यह अस्वीकार्य है।”
यह आदेश उस याचिका पर आया जिसमें हाईकोर्ट के 20 मार्च के आदेश को चुनौती दी गई थी। उस आदेश में अदालत ने याचिका पर निर्णय टालते हुए शिकायतकर्ता के साक्ष्य दर्ज करने का निर्देश दिया था।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता राजा चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह 3 साल, 8 महीने और 24 दिन से जेल में हैं और यह 28वीं बार है जब मामला हाईकोर्ट में सूचीबद्ध किया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि शिकायतकर्ता के साक्ष्य दर्ज किए जा चुके हैं।
सीबीआई की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल राजा ठाकरे ने जमानत का विरोध करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता 33 अन्य मामलों में भी आरोपी है। इस पर चौधरी ने जवाब दिया कि हिरासत में लिए जाने के बाद 27 मामलों में प्राथमिकी दर्ज हुई और सभी में आरोपी को जमानत मिल चुकी है।
जब अदालत ने यह पूछा कि अब तक कितने गवाहों से पूछताछ हुई है, तो बताया गया कि कुल 365 गवाहों में से सिर्फ तीन से ही पूछताछ हो पाई है। इस पर न्यायमूर्ति गवई ने टिप्पणी की, “हाईकोर्ट पिछले 27 मौकों पर कुछ नहीं कर सका, फिर हम 28वें मौके पर कोई फैसला होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?”
सुप्रीम कोर्ट ने अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचते हुए कि हाईकोर्ट के समक्ष लंबित जमानत याचिका अब निरर्थक हो चुकी है, याचिकाकर्ता को जमानत प्रदान कर दी।
इस फैसले को न्यायपालिका की कार्यप्रणाली में तेजी लाने की एक चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है, खासकर तब जब मामला किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा हो।