झारखंड में भाजपा का हर रणनीति विफल : अनुसूचित जनजाति के लिए 28 सीटें आरक्षित : 25 सीटों पर लड़ा चुनाव, जीती सिर्फ 1

KK Sagar
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झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर भारी नुकसान का सामना करना पड़ा। राज्य में कुल 28 अनुसूचित जनजाति आरक्षित सीटें हैं, जिनमें से भाजपा ने 25 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए। इसके बावजूद पार्टी केवल एक सीट पर ही जीत दर्ज कर सकी। यह सीट झामुमो से भाजपा में आए पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन की थी।

नए उम्मीदवारों का दांव भी विफल

भाजपा ने अनुसूचित जनजाति की सीटों पर चुनावी समीकरण बदलने के लिए 25 में से 19 सीटों पर नए चेहरे उतारे थे। पार्टी को उम्मीद थी कि ये नए उम्मीदवार आदिवासी समुदाय के मतदाताओं को आकर्षित करेंगे। हालांकि, यह रणनीति पूरी तरह से असफल साबित हुई, और अधिकांश उम्मीदवार अपनी सीटें गंवा बैठे।

पार्टी के प्रयास बेअसर

भाजपा ने 2019 में अनुसूचित जनजाति की 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी। 2024 में इस आंकड़े को बढ़ाने के लिए पार्टी ने बड़े आदिवासी नेताओं को अपने पाले में लाने का प्रयास किया।

गीता कोड़ा: कांग्रेस से भाजपा में आईं, लेकिन लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव हार गईं।

चंपाई सोरेन: भाजपा में शामिल हुए और अपनी सीट तो बचाई, लेकिन उनके बेटे को हार का सामना करना पड़ा।

लोबिन हेम्ब्रम और सीता सोरेन जैसे अन्य नेता भी भाजपा के लिए जीत का आधार नहीं बना सके।

2019 के चुनाव में भाजपा को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 28 सीटों में से केवल 2 सीटें मिली थीं। 2024 में स्थिति और खराब हो गई, और पार्टी इन सीटों पर मात्र 1 सीट ही जीत सकी। पार्टी ने 25 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से 19 पर नए उम्मीदवार उतारे गए थे। इन प्रयासों के बावजूद पार्टी को कोई खास लाभ नहीं हुआ।पार्टी द्वारा दूसरे दलों के बड़े आदिवासी नेताओं को शामिल करने की रणनीति भी विफल रही। उदाहरण के लिए, कोल्हान क्षेत्र में पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा और अन्य नेताओं को भाजपा में शामिल किया गया, लेकिन वे चुनाव जीतने में नाकाम रहे।

दलबदल नीति भी नाकाम


भाजपा ने चुनाव से पहले दूसरे दलों के नेताओं को पार्टी में शामिल करने पर जोर दिया। गीता कोड़ा, चंपाई सोरेन, लोबिन हेम्ब्रम, और सीता सोरेन जैसे नेता पार्टी में शामिल हुए, लेकिन चुनाव में पार्टी को इसका कोई फायदा नहीं हुआ।
गीता कोड़ा लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव हार गईं। चंपाई सोरेन ने अपनी सीट तो बचाई, लेकिन उनके बेटे को हार का सामना करना पड़ा।

2019 से भी खराब प्रदर्शन

पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 9 सीटें गंवाई थीं। इस बार पार्टी का प्रदर्शन और कमजोर हो गया। कुल 25 सीटों पर उम्मीदवार उतारने के बावजूद पार्टी मात्र एक सीट जीत पाई। झारखंड में आदिवासी समुदाय पर अपनी पकड़ बनाने के लिए भाजपा की तमाम कोशिशें नाकाम साबित हो रही हैं।

भाजपा के लिए गंभीर चुनौती

झारखंड में अनुसूचित जनजाति के मतदाताओं के बीच भाजपा की स्वीकार्यता में कमी इस बार के चुनाव परिणामों से साफ दिखाई देती है। पार्टी के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती राज्य में आदिवासी समुदाय का विश्वास जीतने और संगठन को मजबूत करने की है।

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