नए संसद भवन में स्थापित हुआ सेंगोल : सदियों पुरानी इस प्रतिक का क्या है अर्थ और इससे जुड़ी कहानी?, पढ़े खबर विस्तार से……

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मिरर मीडिया : देशभर में सेंगोल की खूब चर्चा हो रही है। राजनीति गालियारे में भी इस पर बहुत राजनीति हो रही है और इसके बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नए संसद भवन में लोक सभा अध्यक्ष के आसन के पास पवित्र सेंगोल को स्थापित कर दिया है। क्या आपको पता है कि ये पवित्र सेंगोल है क्या और कहाँ से आया है?

ये सेंगोल ढाई हज़ार साल पुराने चोल साम्राज्य में सत्ता हस्तांतरित करने के प्रतीक के रूप में उपोग किया जाता था। कल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस पर जबदस्त निशाना साधते हुए कहा कि 1947 में अंग्रेजों से सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक ‘सेंगोल’ (राजदंड) को आजादी के बाद उचित सम्मान मिलना चाहिए था, लेकिन इसे प्रयागराज के आनंद भवन में ‘छड़ी’ के रूप में प्रदर्शित किया गया।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में तमिलनाडु के सदियों पुराने मठ के आधीनम महंतों का आगमन उस परंपरा को फिर से सत्ता का खास अंग बनाने के लिए हुआ है, जिसका लेखा-जोखा हमारी प्राचीन पद्धतियों में दर्ज रहा है और जो इस देश की विरासत रही है. यहां सेंगोल की बात हो रही है, जिसे प्राचीन काल से राजदंड के तौर पर जाना जाता रहा है। यह राजदंड सिर्फ सत्ता का प्रतीक नहीं, बल्कि राजा के सामने हमेशा न्यायशील बने रहने और प्रजा के लिए राज्य के प्रति समर्पित रहने के वचन का स्थिर प्रतीक भी रहा है। 

वहीं प्राचीन इतिहास पर नजर डालें तो सेंगोल के सूत्र चोल राज शासन से जुड़ते हैं, जहां सत्ता का उत्तराधिकार सौंपते हुए पूर्व राजा, नए बने राजा को सेंगोल सौंपता था। यह सेंगोल राज्य का उत्तराधिकार सौंपे जाने का जीता-जागता प्रमाण होता था और राज्य को न्यायोचित तरीके से चलाने का निर्देश भी।

👉🏻रामायण-महाभारत में हुआ है ऐसे प्रतिक का जिक्र

रामायण-महाभारत के कथा प्रसंगों में भी ऐसे उत्तराधिकार सौंपे जाने के ऐसे जिक्र मिलते रहे हैं। इन कथाओं में राजतिलक होना, राजमुकुट पहनाना सत्ता सौंपने के प्रतीकों के तौर पर इस्तेमाल होता दिखता है, लेकिन इसी के साथ राजा को धातु की एक छड़ी भी सौंपी जाती थी, जिसे राजदंड कहा जाता था। इसका जिक्र महाभारत में युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के दौरान भी मिलता है। जहां शांतिपर्व में इसके जिक्र की बात करते हुए कहा जाता है कि ‘राजदंड राजा का धर्म है, दंड ही धर्म और अर्थ की रक्षा करता है।

राजतिलक और राजदंड की वैदिक रीतियों में एक प्राचीन पद्धति का जिक्र होता है। इसके अनुसार राज्याभिषेक के समय एक पद्धति है। राजा जब गद्दी पर बैठता है तो तीन बार ‘अदण्ड्यो: अस्मि’ कहता है, तब राजपुरोहित उसे पलाश दंड से मारता हुआ कहता है कि ‘धर्मदण्ड्यो: असि’. राजा के कहने का तात्पर्य होता है, उसे दंडित नहीं किया जा सकता है। ऐसा वह अपने हाथ में एक दंड लेकर कहता है। यानि यह दंड राजा को सजा देने का अधिकार देता है, लेकिन इसके ठीक बाद पुरोहित जब यह कहता है कि, धर्मदंडयो: असि, यानि राजा को भी धर्म दंडित कर सकता है।ऐसा कहते हुए वह राजा को राजदंड थमाता है। यानि कि राजदंड, राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाने का साधन भी रहा है। महाभारत में इसी आधार पर महामुनि व्यास, युधिष्ठिर को अग्रपूजा के जरिए अपने ऊपर एक राजा को चुनने के लिए कहते हैं।

👉🏻तमिल शब्द ‘सेम्मई’ से बना है सेंगोल

सेंगोल को और खंगालें तो कई अलग-अलग रिपोर्ट में  इसकी उत्पत्ति तमिल शब्द ‘सेम्मई’ से बताई गई है। सेम्मई का अर्थ है ‘नीतिपरायणता’, यानि सेंगोल को धारण करने वाले पर यह विश्वास किया जाता है कि वह नीतियों का पालन करेगा। यही राजदंड कहलाता था, जो राजा को न्याय सम्मत दंड देने का अधिकारी बनाता था। ऐतिहासिक परंपरा के अनुसार, राज्याभिषेक के समय, राजा के गुरु के नए शासक को औपचारिक तोर पर राजदंड उन्हें सौंपा करते थे।

राजदंड, राजा की आम सभा में न्याय का प्रतीक रहा है. इतिहास के कालखंड से जुड़ी एक रिपोर्ट के मुताबिक, राजदंड का प्रयोग मौर्य साम्राज्य (322-185 ईसा पूर्व) में भी हुआ करता था। मौर्य सम्राटों ने अपने विशाल साम्राज्य पर अपने अधिकार को दर्शाने के लिए राजदंड का इस्तेमाल किया था. चोल साम्राज्य (907-1310 ईस्वी) के अलावा गुप्त साम्राज्य (320-550 ईस्वी), और विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ईस्वी) के इतिहास में भी राजदंड प्रयोग किया गया है। अभी हाल ही में ब्रिटेन में प्रिंस चार्ल्स का कोरोनेशन करते हुए उनके हाथ में राजदंड की ही प्रतीक एक छड़ी थमाई गई है। ये इस बात की गवाह है कि शाही वस्तुओं में राजदंड सबसे अहम तथ्य और शब्द रहा है, जिसे राजा और राज्य की शक्तियां तय करने की क्षमता मिली हुई है।

वहीं अभी के सेंगोल की बात करते हुए तथ्यों के तार चोल साम्राज्य के साथ अधिक जुड़े नजर आते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि, सेंगोल की 1947 से जुड़ा जो विस्तृत इतिहास सामने आया है, उसके धागे तमिल संस्कृति की प्राचीनता से जुड़े हैं। बता दें कि यह वही सेंगोल है जिसे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 14 अगस्त की रात अपने आवास पर कई नेताओं की उपस्थिति में स्वीकार किया था।

जब सत्ता के हस्तांतरण का समय आया, तो वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पूर्व पीएम नेहरू से पूछा कि भारतीय परंपराओं के अनुसार देश को सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक क्या होना चाहिए। तब पीएम होने वाले नेहरू ने भारत के प्रथम गवर्नर सी राजगोपालाचारी से बात की। उन्होंने ही एक गहन शोध के बाद राय दी कि भारतीय परंपराओं के अनुसार, ‘सेंगोल’ को ऐतिहासिक हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने तमिल संस्कृति और चोल राज परंपरा का ही हवाला दिया।

देश को नया संसद भवन के साथ सेंगोल भी स्थापित कर दिया गया है। इससे पहले संतों ने विधि-विधान, पूजा-हवन और मंत्रोच्चार के साथ पवित्र सेंगोल को प्रधानमंत्री मोदी को सौंपा। प्रधानमंत्री ने लोकसभा अध्यक्ष बिरला के साथ नए संसद भवन में बने लोक सभा चैंबर में जाकर लोक सभा अध्यक्ष के आसन के समीप इस पवित्र सेंगोल को स्थापित किया है।

👉🏻सेंगोल की आकृति, नक्काशी-बनावट

सेंगोल के बनाने में जो आकृति और इसकी जैसी नक्काशी-बनावट नजर आती है, उसकी वजह भी यह है कि प्राचीन चोल इतिहास से इसका जुड़ाव रहा है। सेंगोल के सबसे ऊपर बैठे हुए नंदी की प्रतिमा स्थापित है। नंदी की प्रतिमा इसका शैव परंपरा से जुड़ाव दर्शाती है. इसके साथ ही नंदी के होने के कई अन्य मायने भी हैं। हिंदू व शैव परंपरा में नंदी समर्पण का प्रतीक है।

यह समर्पण राजा और प्रजा दोनों के राज्य के प्रति समर्पित होने का वचन है। दूसरा, शिव मंदिरों में नंदी हमेशा शिव के सामने स्थिर मुद्रा में बैठे दिखते हैं। हिंदू मिथकों में ब्रह्मांड की परिकल्पना शिवलिंग से की जाती रही है। इस तरह नंदी की स्थिरता शासन के प्रति अडिग होने का प्रतीक है. जिसका न्याय अडिग है, उसी का शासन अडिग है। इसलिए नंदी को सबसे शीर्ष पर स्थान दिया गया है, जो कर्म को सर्वोपरि रखने की प्रेरणा देता है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी इसी आधार पर सेंगोल को निष्पक्ष, न्यायपूर्ण शासन का प्रतीक बताया है।

👉🏻सम्यक दृष्टि का प्रतीक है सेंगोल की लंबाई


नंदी की स्थापना एक गोल मंच पर की गई है, यह गोल मंच संसार का प्रतीक है। इसका अर्थ ये लगाया जाता है कि इस संसार में स्थिर, शांतचित्त और कर्मशीलता ही सबसे ऊपर है। इसके अलावा इसी तरह इसमें अन्य धार्मिक प्रतीकों की नक्काशी भी की गई है। सेंगोल की लंबाई का भी खास महत्व है। यह पांच फीट की एक छड़ी नुमा संरचना है। इसे अगर हाथ में सीधा पकड़ कर खड़ा किया जाए तो यह मनुष्य की औसत ऊंचाई के बराबर है। सेंगोल की लंबाई सम्यक दृष्टि का प्रतीक है, जो दिखाता है कि सभी नागरिक एक समान हैं और इनमें जाति, वेश-भाषा, धर्म-पंथ के आधार पर कोई अंतर नहीं है। यह खास बात हमारे संविधान की प्रस्तावना का भी हिस्सा है।

सेंगोल में गोल हिस्से की सामने वाली चौड़ी पट्टी पर देवी लक्ष्मी की आकृति नक्काशी के जरिए उकेरी गई है। हिंदू मिथकों में देवी लक्ष्मी धन की देवी हैं और राजदंड रूपी सेंगोल में भी वह राज्य  के वैभव की प्रतीक हैं। सेंगोल में लक्ष्मी स्वरूप का उकेरा जाना इस बात का संकेत है राजा को कोषागार या राज्य के खजाने का अधिपति भी बनाया जा रहा है  वह कर लेने का अधिकारी है, साथ ही राज्य में किसी को धन-धान्य की कमी न हो, इसे भी सुनिश्चित करने वाला राजा ही है। देवी लक्ष्मी के आस-पास हरियाली के तौर पर फूल-पत्तियां, बेल-बूटे उकेरे गए हैं, जो कि राज्य की कृषि संपदा का प्रतीक हैं।

सेंगोल को संपदा से जोड़ा जाता है। सेंगोल की हमारे इतिहास में काफी बड़ी भूमिका रही है। एक तरफ जहां अंग्रेजों से भारत को सत्ता हस्‍तांरण का ये माध्यम है, तो वहीं पंडित नेहरू ने तमिलनाडु से आए सेंगोल को स्वीकार किया था।

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