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पूरा भारत भले ही अलग-अलग भाषाएं बोलता हो, बावजूद वह सोचता हिंदी में है : डाॅ विजया सिंह

जमशेदपुर : भारत जैसे देश में जब भाषा की बात करते हैं तो सामने आती है बहुभाषिकता। बहुभाषिकता यानी एक से अधिक भाषाओं का एक साथ अस्तित्व में होना। भारत एक बहुभाषी देश है। यहां का लगभग हर व्यक्ति बहुभाषी है। ये बहुभाषिकता ही है जो एक-दूसरे से एक प्रांत से दूसरे प्रांत को, एक समाज से दूसरे समाज को और यहां तक कि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से न सिर्फ जोड़ती है बल्कि एक-दूसरे की सभ्यताओं में, आर्थिक, सामाजिक जीवन में जगह भी बनाती है। यहीं नहीं शिक्षा, व्यवसाय संबंधी जरूरतों के कारण भी भारतीय समाज बहुभाषी समाज है। बहुभाषिकता की स्थिति भारतीय समाज के एकदम से पनपी स्थिति नहीं है। यह तो प्राचीन काल से चली आ रही भाषायी संरचना है। इस वास्तविकता से आम जन भी बहुत पहले से परिचित है। तभी तो लोकोक्ति है ‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बदले बानी।’ यानी बहुभाषिकता की पृष्ठभूमि यहां पहले से ही थी, आधुनिक तकनीक, महानगरों के उदय ने इसे और मज़बूती प्रदान की है। वैसे भी किसी भी देश का बहुभाषाई होना उसकी ताकत होती है। वह ताकत जो सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश को मजबूती प्रदान करती है कई सारे भाषायी तत्वों को एक साथ जोड़ कर। निश्चित रूप से ऐसे भाषायी संसार में मातृभाषा एक रीढ़ की हड्डी की तरह काम करती है। अन्य भाषाएं शरीर के दूसरे अंगों की तरह रूप को कांतिमयता प्रदान करती हैं। जैसे एक बच्चा जब स्कूल जाता है तब उसकी भाषा के रूप में उसकी मातृभाषा उसके साथ होती है। उसी को आधार बना कर बड़े होने के क्रम में वह स्कूल और आपसी परिवेश से अन्य भाषाएं औपचारिक और अनौपचारिक रूप में सीखता है। यह सीखना सहज रूप में होता है क्योंकि बहुभाषिकता भारतीय समाज की प्रवृत्ति है।

भाषाविद् हॉगेन बताते हैं कि ‘दो भाषाओं के ज्ञान की स्थिति द्विभाषिक है।’ वैसे तो बहुत सी भाषाओं को जानने वाले को बहुभाषिक कहते हैं परंतु एक से अधिक भाषा (केवल दो) जानने वाले को द्विभाषिक के साथ-साथ बहुभाषिक भी कहते हैं। दूसरी ओर भाषाविज्ञान के विद्वान ब्लूमफील्ड ने कहा कि ‘बहुभाषिकता की स्थिति तब पैदा होती है जब व्यक्ति किसी ऐसे समाज में रहता है जो उसकी मातृभाषा से अलग भाषा बोलता है और उस समाज में रहते हुए वह उस अन्य भाषा में इतना पारंगत हो जाता है कि उस भाषा का प्रयोग मातृभाषा की तरह कर सकता है।’ ये दोनों स्थितियां भारतीय भाषा समाज में देखने को मिलती हैं। इसलिए यह मानने में कोई गुरेज नहीं है कि भारतीय समाज स्वभाव से ही बहुभाषिक है। भले ही यह स्वभाव लंबे समय से चली आ रही सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक परिस्थिति के कारण बनी हो। अब बात आती है कि बहुत सारी भाषाओं में हिंदी का स्थान कहां है? तो जबाव है हिंदी हमारे भाषा व्यवहार में है। क्योंकि उत्तर भारत में तो हिंदी मातृभाषा के रूप में अन्य भाषाओं के आधार का काम कर ही रही है, दक्षिण भारत में भी हिंदी भाषा सोचने की भाषा बनने के कगार पर है। यहां एक बात ध्यान देने की है कि भारत की बहुभाषिकता पश्चिमी देशों की बहुभाषिकता से अलग है। पश्चिमी देशों में भाषाओं की सीमा स्पष्ट रूप से तय है। इसके कारण यहां एक भाषा मुख्य तो दूसरी भाषा गौण होती है। जबकि भारत में ऐसा नहीं है।

एक सूदूर देहात का व्यक्ति भी यह मानता है कि उसकी अपनी भाषा हिंदी है और उसी तरह के सम्मान का भाव वह अपने गांव की भाषा यानी क्षेत्रीय भाषा के प्रति भी रखता है। इसके आलवे अगर कार्यस्थल पर उसे अंग्रेजी का प्रयोग कारण हो उसी मनोयोग से वह तीसरी भाषा, यानी अंग्रेजी को अपनाता है। कहने का आशय है कि राष्ट्रभाषा, क्षेत्रीय भाषा और रजिस्टर भाषा तीनों को मुख्य भाषा के तौर पर ही वह देखता है। ज्ञात हो कि रजिस्टर भाषा उस भाषा को कहते हैं जो एक खास क्षेत्र या डोमेन में प्रयोग में लायी जाती है। यानी भारतीय भाषायी परिवार उस संयुक्त परिवार की तरह है जिसके सभी सदस्यों को आयु और सामाजिक ओहदे के आधार पर सम्मान प्राप्त है। यानी भाषायी आधार पर भी भारत मे विविधता में एकता की अवधारणा एकदम फिट बैठती है। अगर हिंदी के स्थान और स्थिति की बात करें तो बहुभाषिकता के केंद्र में हिंदी है। जिस तरह शरीर के अंग आत्मारूपी प्राणवायु के रहने पर ही कम कराते हैं, हिंदीरूपी आत्मा के आधार पर हीं अन्य भाषाएं शरीर के अवयव के रूप में कार्य करती हैं।

इसका एक प्रमाण यह भी है कि एक समाज दूसरे समाज से संपर्क साधने के लिए हिंदी भाषा का प्रयोग करता है। इस तरह हिंदी कई क्षेत्रों में संपर्क भाषा के रूप में भी कार्य करती है। खास कर भारत में हिंदी को आधार बना कर ही अन्य भाषाएं औपचारिक या अनौपचारिक रूप में सीखायी जाती हैं। जिस तरह एक भोजपुरीभाषी और एक छत्तीसगढ़ीभाषी आपस में मिलेंगे तो परस्पर संवाद की भाषा मूलतः हिंदी ही होगी। हिंदी ने बहुत पहले ही यह सिद्ध कर दिया था कि वह आमजन कि भाषा है। हिंदी के इस ऐलान को बाजार ने समझा और जन संदेश, जैसे विज्ञापन, समाचार चैनल और हिंदी में ही अन्य कार्यक्रमों की प्रस्तुति की। हिंदी में बढ़ते चैनल, समाचारपत्र और यहां तक कि सोशल मीडिया पर भी बहुतायत से हिंदी का प्रयोग यह बताता है कि पूरा भारत भले ही अलग-अलग भाषाएं बोलता हो, बहुभाषिकता की स्थिति बनाता हो लेकिन बावजूद इसके वह सोचता हिंदी मे ही है। कह सकते हैं कि भाषाओं की इस संरचना में केंद्र में हिंदी ही है। इसके बाद परिधि पर अन्य भाषाएं उपस्थित होकर हिंदी को बल प्रदान करती है तथा हिंदी को आधार मान कर विकसित होती हैं।

प्रस्‍तुति – डाॅ विजया सिंह, असिस्टेंट प्रोफेसर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

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